एक पूर्णिमा की रात – बुद्ध पूर्णिमा स्पेशल


  • बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं *

ऐसा हुआ कि बुद्ध एक वृक्ष के नीचे एक पूर्णिमा की रात ध्यान करते थे। शहर से कुछ युवक एक वेश्या को लेकर जंगल में आ गए हैं। नशे में धुत उन्होंने वेश्या को नग्न कर दिया है। वे हंसी-मजाक कर रहे हैं। वे अपनी क्रीड़ा में लीन हैं। उनको बेहोश देखकर, शराब में धुत देखकर वेश्या भाग निकली। थोड़ी देर बाद जब उन्हें होश आया और देखा कि वेश्या तो जा चुकी है, तो वे उसे खोजने निकले। कोई और तो न मिला, राह के किनारे, वृक्ष के नीचे बुद्ध मिल गए। तो उन्होंने पूछा कि “ऐ भिक्षु, यहां से तुमने एक बहुत सुंदर स्त्री को नग्न जाते देखा?’

बुद्ध ने कहा, “कोई यहां से गया–कहना मुश्किल है कि स्त्री है या पुरुष। क्योंकि वह भेद तभी तक था जब अपनी कामना थी। अब कौन भेद करता है! किसको लेना-देना है! क्या पड़ी है! कोई गया जरूर; तय करना मुश्किल है कि स्त्री थी या पुरुष था। और तुम कहते हो, सुंदर!–तुम और कठिन सवाल उठाते हो, सुंदर और असुंदर भी गया। वह अपने ही मन का खेल था। हां एक अस्थिपंजर, मांस-मज्जा से भरा, गुजरा है जरूर। कहां गया, यह कहना मुश्किल है। क्योंकि, मैं आंखों को भीतर ले जाने में लगा हूं। बाहर कौन जा रहा है, यह देखता रहूं तो भीतर कैसा जाऊं? तुम मुझे क्षमा करो। तुम किसी और को खोजो। वह तुम्हें ठीक-ठीक पता दे सकेगा। मैं अपना पता खोज रहा हूं, दूसरों के पते की मुझे अब कोई चिंता न रही।’

काश! काम के बिना तुम स्त्री को देखो या पुरुष को देखो क्या पाओगे वहां? शरीर में तो कुछ भी नहीं है। और अगर कुछ है तो वह अशरीरी है। लेकिन काम की आंखें तो उसे देख ही न पाएंगी–उस आत्मा को जो इस हड्डी-मांस-मज्जा की देह में छिपी है। उस चैतन्य को, उस ज्योति को तो काम से भरी आंखें तो देख ही न पाएंगी। तुम देह पर ही भटक रहोगे।

जब काम गिर जाता है, शरीर ना–कुछ हो जाता है; मिट्टी से उठा, मिट्टी में वापस लौट जाएगा। लेकिन जैसे ही शरीर ना–कुछ हुआ, वैसे ही शरीर के भीतर जो छिपा है, उसकी पहली झलक मिलनी शुरू हो जाती है। तब न तो तुम स्त्री को पाते हो न पुरुष को; तुम सब जगह परमात्मा को पाते हो। ओशो, सुनो भाई साधो--प्रवचन--11

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